वाराणसी : नागा साधुओं की मोक्षनगरी


भारत में संत-परंपरा और तीर्थयात्रा की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। नागा साधु, जो शिव के अनन्य उपासक होते हैं। कुंभ मेले के बाद नागा साधु अक्सर वाराणसी जाते हैं। इसके पीछे कई धार्मिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और पारम्परिक कारण हैं। वाराणसी जिसे ‘काशी’ और ‘मोक्षदायिनी नगरी’ भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में सबसे पवित्र शहरों में से एक माना जाता है। यह शहर भगवान शिव की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है और गंगा नदी के तट पर स्थित होने के कारण इसका धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है। नागा साधु, जो कि अत्यधिक तपस्वी, धार्मिक, विशेष साधना करने वाले, अखाड़ों की परम्पराओं का पालन करने वाले और कठोर जीवन जीने वाले होते हैं, वाराणसी को आध्यात्मिक साधना और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक आदर्श स्थान मानते हैं। इसलिए नागा साधु आत्मकल्याण की दृष्टि से कुंभ के बाद वाराणसी जाना अनिवार्य मानते हैं।

महाकुंभ मेला : एक संक्षिप्त परिचय

महाकुंभ मेला हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है और यह चार अलग-अलग स्थानों पर होता है : प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इनमें से प्रयागराज में आयोजित होने वाला महाकुंभ सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। महाकुंभ मेले का आयोजन गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर होता है, जिसे ‘त्रिवेणी संगम’ कहा जाता है।

महाकुंभ मेले के आंकड़े

• श्रद्धालुओं की संख्या : महाकुंभ मेले में करोड़ों श्रद्धालु भाग लेते हैं। 2019 के प्रयागराज महाकुंभ में लगभग 24 करोड़ श्रद्धालुओं ने भाग लिया था।
• नागा साधुओं की संख्या : महाकुंभ मेले में हजारों नागा साधु शामिल होते हैं। 2019 के महाकुंभ में लगभग 50,000 नागा साधुओं ने भाग लिया था।
• आर्थिक प्रभाव : महाकुंभ मेले का आर्थिक प्रभाव भी बहुत बड़ा होता है। 2019 के महाकुंभ ने उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये का लाभ पहुंचाया था।
• अवधि : महाकुंभ मेले की अवधि लगभग 48 दिनों की होती है, जिसमें विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान और स्नान पर्व होते हैं।

नागा साधुओं की महाकुम्भ में भूमिका

नागा साधु महाकुंभ मेले में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वे मेले के दौरान विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं और शाही स्नान (रॉयल बाथ) के दौरान सबसे पहले स्नान करते हैं। नागा साधुओं का स्नान करना मेले के सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र क्षणों में से एक माना जाता है।

महाकुंभ के बाद वाराणसी जाने के कारण

महाकुंभ मेले के बाद नागा साधु अक्सर वाराणसी जाते हैं, और इसके पीछे कई धार्मिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक कारण हैं।

वाराणसी का धार्मिक महत्व

वाराणसी को हिंदू धर्म में मोक्ष की नगरी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस शहर में मृत्यु होने पर व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। यह शहर भगवान शिव और माता पार्वती की तपस्या स्थली के रूप में भी जाना जाता है। वाराणसी में स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर हिंदुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव स्वयं मरते हुए व्यक्ति के कान में तारक मंत्र का उच्चारण करते हैं, जिससे उसे पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है। नागा साधु, जो सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल आध्यात्मिक साधना में लीन रहते हैं, इस नगर को अपने लिए सबसे उपयुक्त मानते हैं। नागा साधु यहाँ आकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी आध्यात्मिक साधना को गहराई से जीते हैं। उनके लिए वाराणसी केवल एक तीर्थ ही नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है, जहाँ वे अपने योग, तप और साधना को एक उच्चतम स्तर तक ले जा सकते हैं।

काशी और शिव की विशेषता

वाराणसी को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है। नागा साधु, जो कि शिव के अनन्य भक्त होते हैं, उनके लिए यह स्थान सबसे पवित्र होता है। वे कुंभ मेले में सार्वजनिक रूप से स्नान और दर्शन देने के बाद वाराणसी जाकर शिवलिंग की विशेष पूजा करते हैं और अपनी साधना को और अधिक गहन रूप देते हैं।

वाराणसी से जुड़े कुछ धार्मिक तथ्य

• इसे त्रिलोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) में सबसे पवित्र स्थान माना जाता है।  
• मान्यता है कि यहाँ के कण-कण में शिव का निवास है।  
• काशी विश्वनाथ मंदिर को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है, जहाँ दर्शन के लिए नागा साधु कुंभ के बाद अवश्य जाते हैं।

गंगा नदी का महत्त्व

वाराणसी गंगा नदी के तट पर स्थित है और गंगा को हिंदू धर्म में सबसे पवित्र नदी माना जाता है। नागा साधु गंगा स्नान को अत्यंत पवित्र और पापमोचनी मानते हैं। कुंभ मेले के बाद वाराणसी जाकर गंगा में स्नान करना उनके लिए एक आध्यात्मिक अनुष्ठान होता है। गंगा के तट पर ध्यान और साधना करना उनकी आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।

आध्यात्मिक साधना के लिए उपयुक्त वातावरण

वाराणसी का वातावरण नागा साधुओं की आध्यात्मिक साधना के लिए अनुकूल होता है। यह शहर शांत और पवित्र माना जाता है, जहां वे बिना किसी व्यवधान के ध्यान और योग में लीन रह सकते हैं। वाराणसी में कई प्राचीन आश्रम और मठ हैं, जहां नागा साधु अपनी साधना को और गहरा कर सकते हैं। यहां के आश्रमों में वे अन्य साधु-संतों के साथ ज्ञान और अनुभव का आदान-प्रदान भी करते हैं।

वाराणसी : अंतिम आश्रय स्थल

कई नागा साधु अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में वाराणसी को ही अपना स्थायी निवास बना लेते हैं। वे मानते हैं कि यहाँ अंतिम सांस लेने से उन्हें पुनर्जन्म से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कई नागा साधु कुंभ मेले के बाद यहाँ आकर स्थायी रूप से रहने लगते हैं।  

आध्यात्मिक ऊर्जा और तपस्या के लिए अनुकूल वातावरण

वाराणसी में अद्वितीय आध्यात्मिक ऊर्जा पाई जाती है। यहाँ के गंगा घाट, प्राचीन मंदिर, और तपस्वियों की उपस्थिति इसे एक विशेष साधना स्थल बनाते हैं। नागा साधु यहाँ आकर ध्यान, जप, और योग साधना करते हैं ताकि वे आत्मबोध की ओर बढ़ सकें।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

वाराणसी का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व भी नागा साधुओं को आकर्षित करता है। यह शहर सदियों से हिंदू धर्म, दर्शन, कला और संस्कृति का केंद्र रहा है। यहां के प्राचीन मंदिर, घाट और विद्वानों की परंपरा नागा साधुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। वाराणसी में वे अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को और गहराई से समझ सकते हैं।

पंचक्रोशी यात्रा और गंगा स्नान

कुंभ मेले के दौरान नागा साधु गंगा स्नान करते हैं, लेकिन कुंभ के बाद वाराणसी में गंगा स्नान का अलग ही महत्व होता है। यहाँ वे विशेष ‘पंचक्रोशी यात्रा’ करते हैं, जो वाराणसी के प्रमुख धार्मिक स्थलों की 80 कि.मी. की परिक्रमा होती है। इस यात्रा में साधु विभिन्न मंदिरों और शिवलिंगों के दर्शन करते हैं, जिनमें प्रमुख हैं :  
• काशी विश्वनाथ मंदिर  
• संकठा देवी मंदिर  
• कालभैरव मंदिर  
• संकट मोचन हनुमान मंदिर  
• मणिकर्णिका घाट (यहाँ शिव का तांडव हुआ था)  

नागा साधुओं की जीवनशैली

नागा साधु अत्यंत तपस्वी और संयमी जीवन जीते हैं। वे भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रहकर केवल आध्यात्मिक साधना में लीन रहते हैं। कुंभ मेले के बाद वाराणसी जाना उनकी जीवनशैली का एक अभिन्न अंग है। यहां वे अपनी साधना को और गहरा करते हैं और अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

समाज में नागा साधुओं की भूमिका

नागा साधु हिंदू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। वे धर्म और आध्यात्मिकता के प्रतीक माने जाते हैं। कुंभ मेले के दौरान उनकी उपस्थिति और विभिन्न अनुष्ठानों में भागीदारी लाखों श्रद्धालुओं को प्रेरणा देती है। कुंभ के बाद वाराणसी जाकर वे अपनी साधना को जारी रखते हैं और समाज को आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

श्मशान साधना और अघोर परंपरा से संबंध

वाराणसी का मणिकर्णिका घाट हिंदू धर्म में सबसे पवित्र श्मशान स्थल माना जाता है। नागा साधु जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होने के लिए यहाँ ‘श्मशान साधना’ करते हैं। अघोरी संप्रदाय से जुड़े कुछ नागा साधु यहाँ शिव की विशेष उपासना करते हैं। वे मानते हैं कि मृत्यु के माध्यम से ही जीवन का अंतिम सत्य समझा जा सकता है। वे श्मशान में धूनी रमाते हैं और ध्यान साधना में लीन रहते हैं।

गुरु दीक्षा और अखाड़ों की परंपरा

कुंभ मेले के दौरान अनेक नए नागा संन्यासियों को दीक्षा दी जाती है। यह एक कठिन प्रक्रिया होती है जिसमें एक साधु को अपने पूर्व जीवन से पूर्ण रूप से अलग होकर एक नया आध्यात्मिक जीवन अपनाना पड़ता है। कुंभ के बाद ये नवदीक्षित साधु वाराणसी जाकर अपने गुरुजनों से आशीर्वाद लेते हैं और आगे की शिक्षा प्राप्त करते हैं। यहाँ उन्हें सनातन धर्म, योग, ध्यान और वेदांत के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान कराया जाता है। 

जूना अखाड़ा और अन्य अखाड़ों का प्रमुख केंद्र

वाराणसी नागा संप्रदाय के सबसे प्रमुख अखाड़ों में से एक, ‘जूना अखाड़ा’ का मुख्य केंद्र है। इसके अलावा, यहाँ अन्य कई बड़े अखाड़े भी स्थित हैं, जिनमें ‘अवहं अखाड़ा’, ‘अटल अखाड़ा’, ‘महानिर्वाणी अखाड़ा’, ‘अग्नि अखाड़ा’ और ‘आनंद अखाड़ा’ प्रमुख हैं।  
नागा साधु अखाड़ा परंपरा का पालन करते हैं और कुंभ के बाद वे वाराणसी आकर अपने अखाड़े के वरिष्ठ संतों से मिलते हैं। यहाँ वे गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार आगे की साधना की दीक्षा लेते हैं और धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझते हैं। 

मां को पुण्य समर्पण कर पिता शिव से पाते हैं दिव्य ऊर्जा

काशी में अमृत स्नान की परंपरा महाकुंभ से थोड़ी अलग है। महाकुंभ में अखाड़े अलग–अलग समय पर स्नान के लिए जाते हैं तो काशी में एक साथ स्नान करते हैं। गंगा में अमृत स्नान के बाद काशी विश्वनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। अखाड़े अपने आराध्य देव भगवान शिव को स्पर्श करते हैं। भगवान शिव सृष्टि के महान ऊर्जा पुंज हैं। संन्यासी संत महात्मा काशी आकार भगवान शिव के विराट स्वरूप के ऊर्जा पुंज से आध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण करते हैं।

संन्यासी ही क्यों काशी जाते हैं?

महाकुंभ से काशी प्रवास की परंपरा सिर्फ संन्यासी अखाड़े में ही होती है। संन्यासी अखाड़े भगवान शिव के उपासक हैं, क्योंकि शिव ही हमारे गुरु-इष्ट और सब कुछ हैं। शिव के बिना हम अधूरे हैं और शिव भी हमारे बिना अधूरे ही हैं। वहीं वैष्णव अखाड़े भगवान विष्णु को अपना सब कुछ मानते हैं। इसलिए वे महाकुंभ से काशी के आयोजन में शामिल नहीं होते।

मसाने की होली की परंपरा क्या है?

काशी में खेली जाने वाली मसान होली को चिता भस्म होली के नाम से भी जाना जाता है। चिता की राख से होली खेलने की परंपरा वर्षों पुरानी है। यह होली देवों के देव महादेव को समर्पित है। मसान की होली को मृत्यु पर विजय का प्रतीक माना गया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान भोलेनाथ ने यमराज को हराने के बाद चिता की राख से होली खेली थी। तभी से इस दिन को यादगार बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष मसाने की होली खेली जाती है। यह उत्सव दो दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन लोग चिता की राख को एकत्रित करते हैं और इसके दूसरे दिन होली खेलते हैं। पिछले 10 वर्षों से इस उत्सव में अत्यधिक भीड़ होने लगी है, श्मशान घाट पर महिलाएं भी जाने लगी हैं, लेकिन काशी के विद्वानों का कहना है कि ऐसा कहीं नहीं लिखा गया है कि चिता की भस्म से होली श्मशान घाट में जाकर खेली जाए।

40 दिन काशी में रहते हैं अखाड़े

प्रयागराज के महाकुंभ से काशी का प्रवास 40 दिन (बसंत पंचमी से लेकर होली तक) का होता है। इस बीच साधु-संत काशीपुराधिपति भगवान महादेव के विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन पूजन कर उन्हें रिझाने की कोशिश करते हैं। काशी में रहकर संन्यासी भगवान शंकर के साथ होली खेलते हैं। इसके बाद वह हरिद्वार और दूसरी जगह अपने मठ अखाड़ों के मुख्यालय के लिए जाते हैं।

निष्कर्ष

कुंभ मेले के बाद नागा साधुओं का वाराणसी जाना उनकी आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। वाराणसी का धार्मिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्व उन्हें इस शहर की ओर आकर्षित करता है। यहां वे अपनी साधना को गहराई से जीते हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। वाराणसी नागा साधुओं के लिए केवल एक शहर नहीं, बल्कि एक पवित्र तीर्थ और आध्यात्मिक साधना का केंद्र है। वाराणसी, जिसे काशी और अविमुक्त क्षेत्र भी कहा जाता है, नागा साधुओं के लिए एक दिव्य और अंतिम तीर्थस्थल बन जाता है। इसलिए, कुंभ समाप्त होने के बाद नागा साधु वाराणसी की यात्रा को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसे अपनी आध्यात्मिक यात्रा का एक अनिवार्य हिस्सा मानते हैं।

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