कौन हैं नागा साधु?

 

नागा साधु जिन्हें तप और त्याग की प्रतिमूर्ति कहा जाता है, हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं, जो कि नग्न रहते हैं। नागा साधु युद्धकला में प्रवीण होते हैं। नागा साधु मुख्य रूप से अखाड़ों में रहते हैं। यह परम्परा आदिगुरु शंकराचार्य के समय से चली आ रही है।

जीवनशैली

नागा साधुओं की जीवनशैली रहस्यमय होती है। चाहे नागा बनने की प्रक्रिया हो या उनका रहन-सहन, यह सब-कुछ रहस्यमय होता है। ऐसा नहीं है कि नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं होती है। अगर नागा साधु वस्त्र पहनना चाहें, तो ये सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं और यह वस्त्र भी सिर्फ एक ही धारण करते हैं। इससे अधिक वस्त्र नागा साधु नहीं पहनते हैं। नागा साधुओं के गुस्से के बारे में कई किस्से कहनियां भी प्रचलित हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि एक नागा साधु शायद ही किसी को नुकसान पहुंचाते हों। हां, लकिन अगर बिना कारण अगर कोई इन्हें उकसाए या तंग करे, तो इनका क्रोध भयानक हो उठता है। कहा जाता है कि भले ही दनिया अपना रूप बदलती रहे, लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी रूप में रहते हैं। इसी कारण नागा साधु अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं। कोई कपड़ा नहीं धारण करने के कारण नागा साधु दिगम्बर भी कहलाते हैं अर्थात आकाश ही इनका वस्त्र होता है।
नागा साधु जीवन में तीन प्रकार के योग करते हैं, जो उनके लिए भयानक से भयानक ठण्ड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। ये अपने विचार और खानपान दोनों पर ही हमेशा संयम रखते हैं। वास्तव में देखा जाए, तो नागा साधु एक सैन्य पंथ है और ये एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे होते हैं। नागा साधु अपने साथ त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम हमेशा साथ रखते हैं। प्राय: नागा साधु कुम्भ में अधिक दिखाई देते हैं। वैसे तो अधिक संख्या में नागा साधु पुरुष वर्ग ही होते हैं। अब कुछ महिलाएँ भी नागा साधु बनने लगी हैं। हालांकि ये सार्वजनिक रूप से नग्न नहीं रहती हैं। महिला नागा साधु अपने शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र लपेटकर रहती है।
नागाओं का शृंगार कुम्भ के दौरान होने वाले शाही स्नान के वक्त नजर आता है। मान्यता है कि सभी शृंगारों से युक्त नागा साधु के दर्शन होने से कई जन्मों का पुण्य मिलता है। अखाड़ों से जुड़े नागा सन्तों का कहना है कि इस शृंगार की एक विधि है और यह सिर्फ खास अवसर पर किया जाता है। 17शृंगारों से सुसज्जित नागा साधु अपने इष्ट यानी भगवान् भोलेनाथ तथा भगवान् विष्णु की पूजा करते हैं।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है। 

स्वयं का पिण्डदान कर बनते हैं नागा
नागा साधुओं की ट्रेनिंग कमाण्डो ट्रेनिंग से भी अधिक कठिन होती है। उन्हें दीक्षा लेने से पहले स्वयं को इसके लिए योग्य साबित करना पड़ता है। उन्हें स्वयं का पिण्डदान और श्रद्धापूर्वक तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नागा साधुओं को मठों की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। मठों और मन्दिरों की रक्षा करने वाले इन नागा साधुओं ने कई लड़ाइयाँ भी लड़ी हैं। नागा साधु बनने के लिए बेहद कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। इनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। संन्यास लेने अथवा नागा साधु बनने की इच्छा जताने वाले व्यक्ति की जाँच अखाड़ा अपने स्तर करता है और ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति और उसके परिवार की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को यह लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 महीने तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर ले कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है, तो फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।

ऐसे करते हैं शृंगार
एक नागा के शृंगार में लंगोट, भभूत, चन्दन, पैरों में लोहे या फिर चाँदी का कड़ा, अँगूठी, पंचकेश, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुण्डल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमण्डल, गुँथी हुई जटाएँ और तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप और बाहों पर रुद्राक्ष की माला शामिल होती है। आमतौर पर एक सुहागिन महिला 16 शृंगार करती है, लेकिन एक नागा साधु अपने 17वें शृंगार के लिए जाने जाते हैं। 17वाँ शृंगार है ‘भस्म’, जो कि नागा साधुओं का एकमात्र परिधान होता है। प्रत्येक नागा साधु अपने शरीर पर इस सफेद भस्म और रुद्राक्ष की मालाओं के अलावा कुछ नहीं पहनता। मान्यता है कि भगवान् शंकर ऐसे ही 11 हजार रुद्राक्ष मालाएँ धारण करते हैं। 

नागा साधु बनने के बाद नियम
एक नागा साधु बनने के बाद साधु को कुछ नियों का पालन करना होता है। इन नियमों का पालन करने के बाद ही नागा साधु अपने जीवन में असली नागा साधु बन पाता है।
महापुरुष : अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पाँच गुरु बनाए जाते हैं। ये पाँच गुरु पंचदेव अथवा पंचपरमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रुद्राक्ष आदि चीजें ही दी जाती है। ये नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं।
अवधूत : महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद् की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को स्वयं ही अपना तर्पण और पिण्डदान करना होता है। ये पिण्डदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।
ब्रह्मचर्य का पालन : कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लम्बे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं वरन् मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। सबसे पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
सेवाकार्य : ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्रायः 17–18 वर्ष से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।
केवल पृथ्वी पर ही सोना : नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट अथवा अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहाँ तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन प्रत्येक नागा साधु को करना पड़ता है।
मन्त्र में आस्था : दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमन्त्र में ही उसे सम्पूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मन्त्र पर आधारित होती है। 

वर्तमान में नागा साधुओं के अखाड़े
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं—
1. श्री निरंजनी अखाड़ा : यह अखाड़ा 826 ई. में गुजरात के मांडवी में स्थापित किया गया था। वर्तमान में इसकी शाखाएं प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यम्बकेश्वर और उदयपुर में हैं।
2. श्री जूनादत्त/जूना अखाड़ा : यह अखाड़ा 1145 ई. में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ था। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। अस अखाड़े के ईष्टदेव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं।
3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा : यह अखाड़ा 671 ई. में स्थापित हुअा था। इस अखाड़े का जन्म बैजनाथ धाम में हुआ था। इनके ईष्टदेव कपिल मुनि हैं।
4. श्री अटल अखाड़ा : यह अखाड़ा 569 ई. में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्टदेव भगवान गणेश हैं।
5. श्री आह्वान अखाड़ा : यह अखाड़ा 646 ई. में स्थपित हुआ था। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केन्द्र स्थान काशी है।
6. श्री आनन्द अखाड़ा : यह अखाड़ा 855 ई. में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केन्द्र वाराणसी में है।
7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा : इस अखाड़े की स्थापना 1136 ई. में हुई थी। इनकी ईष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केन्द्र काशी है।
8. श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा : यह अखाड़ा 866 ई. में अहिल्या–गोदावरी संगम पर स्थपित हुआ था। इनके संस्थापक पीर शिवनाथ जी हैं। इनके प्रमुख देवता गोरखनाथ हैं।
9. श्री वैष्णव अखाड़ा : यह अखाड़ा 1595 ई. में दारागंज में स्थापित हुआ था।
10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा : यह अखाड़ा 1910 में स्थापित हुआ था। इनमें उदासीन साधु, महन्त और महामण्डलेश्वरों की संख्या अधिक है।
11. श्री उदासीन नया अखाड़ा : यह अखाड़ा 1710 ई. में स्थापित हुआ था। इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा भी कहते हैं। इसकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यम्बकेश्वर में हैं।
12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा : यह अखाड़ा 1784 ई. में स्थापित हुआ था। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब हैं।
13. निर्मोही अखाड़ा : निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 ई. में रामानन्दाचार्य ने की थी। ऐसा भी माना जाता है कि प्राचीन काल में लोमश नाम के ऋषि थे जिनकी आयू अखंड है कहते है जब एक हजार ब्रह्मा समाप्त होते है तो उनके शरीर का एक रोम गिरता है। आचार्य लोमश ऋषि के ने भगवान शंकर के कहने पर गुरू परंपरा पर तंत्र शास्त्र पर आधारित सबसे पहले आगम मठ की स्थापना की। जो सबसे प्राचीन है विश्व में जिसका मुख्यालय वर्तमान मे हिमालय में है।

Post a Comment

3 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.