यह आलेख प्रयागराज महाकुंभ और उससे जुड़े ऐतिहासिक और
सांस्कृतिक पहलुओं का गहन
विवरण प्रस्तुत करता है। यह महाकुंभ, जिसे विश्व
का सबसे बड़ा आध्यात्मिक आयोजन माना
जाता है, न केवल धार्मिक आस्था का
केंद्र है बल्कि भारतीय इतिहास, संस्कृति और परंपरा का
एक अभिन्न हिस्सा
है।

इस वर्ष 12 साल में लगने वाला प्रयागराज महाकुम्भ 13 जनवरी से 26 फरवरी तक आयोजित हो रहा है, जिसमें 40–45 करोड़ श्रद्धालुओं के आने का अनुमान है। इससे पूर्व सन् 2013 के प्रयागराज पूर्ण कुम्भ में 13 करोड़ लोगों ने स्नान किया था, जिसने उस समय एक ही स्थान पर एकत्र होने वाले विश्व के सर्वाधिक श्रद्धालुओं का कीर्तिमान स्थापित किया था। दिसम्बर, 2017 में यूनेस्को ने कुम्भ को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ घोषित किया है। राज्य सरकार ने ‘कुम्भ’ और ‘अर्द्धकुम्भ’ को धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के अवसर के रूप में भी अंगीकार किया है।
यही कारण है कि उत्तरप्रदेश सरकार इसकी एक बड़े सांस्कृतिक आयोजन के रूप में व्यवस्था करती है और इसमें आधारभूत सुविधाएँ प्रदान के लिए बड़ी मात्रा में निवेश कर रही है। इसी उद्देश्य से अर्द्धकुम्भ का भी वैधानिक नाम ‘कुम्भ’ कर दिया गया है तथा पूर्ण कुम्भ को ‘महाकुम्भ’ की संज्ञा दी गई है। 2019 के प्रयागराज कुम्भ (अर्द्धकुम्भ) का बजट 2500 करोड़ रखा गया, जो कि 2013 के पूर्णकुम्भ की तुलना में 2 गुना था। 2025 के महाकुम्भ का बजट 4,200 करोड़ रुपए अनुमानित है।
कुंभ का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व :
- पुराणों के अनुसार, यह स्थान ब्रह्माजी के यज्ञ स्थल के रूप में विख्यात है।
- महाकुंभ प्रमुख रूप से तीन नदियों के संगम पर प्रति 12 वर्ष में आयोजित होता है। ये तीन नदियाँ हैं—गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी।
- ऋग्वेद में गंगा और यमुना के संगम पर स्नान और देह त्याग को अमरत्व का मार्ग बताया गया है।
- माघ महीने में संगम पर स्नान का उल्लेख महाभारत, नारदपुराण और अन्य ग्रंथों में मिलता है।
गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों में ‘तीर्थराज’ की संज्ञा दी गई है। ‘तीर्थराजो जयति प्रयाग:’ उक्ति सर्वविश्रुत है। महाभारत, नारदपुराण आदि में कहा गया है कि यहाँ स्वयं ब्रह्माजी ने श्रेष्ठ यज्ञ किया था। इसलिए इसे प्रयाग कहा गया।
प्रकृष्ट याग: इति प्रयाग:।
प्रकृष्टता के कारण यह ‘प्रयाग’ है और प्रधानता के कारण यह ‘राज’ शब्द से युक्त है। इसकी महत्ता के सम्बन्ध में ॠग्वेद में कहा गया है कि—
सितासिते सरिते यत्र संगते तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति।
ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते जनासो अमृतत्वं भजन्ते।।
अर्थात् जो लोग उस स्थान पर स्नान करते हैं, जहाँ दो नदियाँ श्वेत (गंगा) और श्याम (यमुना) मिलती हैं, स्वर्ग प्राप्त करते हैं, जो धीर लोग वहाँ देह त्याग करते हैं, अमर हो जाते हैं।
लोकमान्यता है कि भारत में कुम्भ पर्व युगों–युगों से मनाया जाता रहा है। यद्यपि ‘तीर्थ’ रूप में प्रयाग का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है, तो संगम पर माघ स्नान का महत्त्व महाभारत एवं पुराणों में वर्णित है, परन्तु कुम्भ पर्व का उल्लेख इनमें दृष्टिगोचर नहीं होता। वैदिक विद्वानों की मान्यता है कि ‘समन’ नामक जिस धार्मिक–सामाजिक उत्सव अथवा पर्व का उल्लेख ॠग्वेद और अथर्ववेद में मिलता है, वह कुम्भ पर्व हो सकता है।
विद्वानों का कहना है कि इस प्रकार के ‘समन’ में लोग एकत्र होते थे। यज्ञ, स्तुति आदि करते थे। साथ ही इनमें सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ भी होती थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ लोग पर्ण कुटि बनाकर अस्थायी रूप से रुकते थे। इन पर्णकुटियों में आग लगने का भी उल्लेख ॠग्वेद में मिलता है।
पुराणों में गंगा और यमुना के संगम स्थल प्रयाग में माघ महीने में और सूर्य के मकर राशि में गोचर के दौरान स्नान करने की महिमा का वर्णन मिलता है। यह स्नान पर्व धीरे–धीरे माघ मेले के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसके ऐतिहासिक साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं।
प्रयाग में अशोक स्तम्भ का मिलना भी तत्कालीन धार्मिक महत्ता का भी संकेत करता है। गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने यहाँ अश्वमेध यज्ञ किया था, जिसका उल्लेख ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में मिलता है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि कन्नौज के शासक हर्षवर्धन शिलादित्य ने 644 ई. में प्रयाग में ‘महादान पर्व’ का आयोजन किया था, जिसमें उसने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर दी थी। ऐसा आयोजन हर्षवर्धन पाँच वर्ष के अन्तराल पर करता था और 644 ई. का आयोजन, जिसमें ह्वेनसांग भी उपस्थित था, हर्ष का छठवाँ पर्व था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष के पूर्वज भी इसी प्रकार का महादान पर्व आयोजित करते थे तथा संगम स्थल ‘महादान भूमि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। ‘लाइफ ऑव ह्वेनसांग’ नामक पुस्तक के अनुसार हर्ष का यह महादान पर्व लगभग 75 दिन तक चलता था। गंगा के उत्तरी तट पर हर्ष अपना शिविर लगवाता था और महादान मण्डप संगम के समीप बनता था। इस पर्व में पहले दिन महात्मा बुध की मूर्ति स्थापित होती थी। दूसरे दिन आदित्यदेव की तथा तीसरे दिन ईश्वर अर्थात् शिव की मूर्ति की स्थापना की जाती थी। इसके बाद बौद्ध भिक्षुओं, ब्राह्मणों, संन्यासियों, फकीरों, गरीबों, विधवाओं आदि को दान दिया जाता था।
ह्वेनसांग आगे लिखता है कि महादान भूमि के पूर्व और दोनों नदियों के संगम में प्रत्येक दिन सैंकड़ों मनुष्य स्नान करते हैं और कुछ प्राण त्याग भी कर देते हैं। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि जो कोई स्वर्ग में जन्म लेना चाहे, वह केवल एक दाना चावल का खाकर उपवास करे और फिर संगम में डूब मरे, तो अवश्य देवकोटि में जन्म पाता है। उन लोगों का कहना है कि इस जल में स्नान करने से महापाप तक धुल जाते हैं इस कारण अनेक प्रान्तों के और बहुत दूर–दूर के देशों के लोग झुण्ड के झुण्ड यहाँ आते हैं।
विद्वानों की मान्यता है कि यह कुम्भ एवं अर्द्धकुम्भ में हर्ष के आने और उसके दान करने का साक्ष्य है।
विद्वानों का तर्क है कि हर्ष के पूर्वज बौद्ध नहीं थे और हर्ष ने भी अपने शासनकाल के उत्तरार्ध में बौद्ध धर्म अपनाया था। इसलिए महादान पर्व की परम्परा बौद्ध परम्परा नहीं थी, वरन् एक हिन्दू परम्परा थी, जो कुम्भ के अवसर पर स्नान एवं अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड के साथ सम्पन्न की जाती थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में भी हिन्दू राजाओं (राष्ट्रकूट, प्रतिहार, पाल, सेन आदि राजाओं) ने संगम पर माघ मेले (कुम्भ) में महादान पर्व की परम्परा को निभाया। बाद में प्रयाग के मुस्लिम आधिपत्य में आने के कारण से राजाओं आदि के महादान पर्व सम्भवत: लुप्त हो गए और आम लोगों एवं संन्यासियों के स्नान की परम्परा चलती रही। 15–17वीं शताब्दी में भी प्रयागराज में संगम पर माघ माह में स्नान आदि का प्रचलन और महत्त्व दिखाई देता है।
स्वामी सारदेशानन्द ने ‘श्री चैतन्य महाप्रभु’ नामक अपनी पुस्तक में चैतन्य महाप्रभु के मकर संक्रान्ति के अवसर पर वृन्दावन से प्रयाग आने और यहाँ माघ मास में संगम पर स्नान हेतु प्रवास करने का उल्लेख किया है। यहीं उनकी वल्लभाचार्य जी से भेंट हुई थी। 15वीं शताब्दी में सनातन गोस्वामी जी ने अपनी पुस्तक ‘बृहद्भागवतामृतम्’ में तीर्थराज प्रयाग में माघ मास में स्नान हेतु सैकड़ों साधुओं के होने की बात की है।
तुलसीदासजी ने ‘रामचरित-मानस’ में माघ मास में मकर के सूर्य में तीर्थराज प्रयाग में सामान्यजन के साथ–साथ ॠषि, मुनि आदि के स्नानादि का वर्णन किया है –
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता।।
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन।।
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।
‘कवितावली’ में भी तुलसीदास जी ने प्रयाग में साधु समाज के सामूहिक स्नान का उल्लेख किया है –
देव कहैं अपनी–अपनी, अवलोकन तीरथराज चलो रे।
देखि मिटै अपराध अगाध, निमज्जत साधु–समाज भलो रे।।
1666 ई. में इलाहाबाद (प्रयाग) आए फ्रांसिसी यात्री ज्याँ डि थेवेनॉट ने लिखा है कि संन्यासी लोग विशेष धार्मिक अवसरों पर इलाहाबाद में एकत्र होते हैं तथा गंगा में सामूहिक स्नान कर धार्मिक पर्व मनाते हैं। इस विवरण से प्रतीत होता है कि 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वार्षिक माघ मेला के अलावा भी प्रयाग में ‘विशेष अवसर’ जो कि सम्भवत: कुम्भ और अर्द्धकुम्भ था, जिस पर संन्यासियों के सामूहिक स्नान की परम्परा आरम्भ हो चुकी थी।
इतिहासकारों के अनुसार 1583 से 1610 ई. और उसके कुछ समय बाद तक इलाहाबाद में संगम के समीप यमुना के किनारे जब किले का निर्माण हुआ, तब संगमस्थल पर निर्माण सामग्री पड़ी रहती थी एवं हजारों मजदूरों का मेला क्षेत्र में प्रवास रहता होगा, जिसके चलते संन्यासियों का सामूहिक स्नान हरिद्वार में स्थानान्तरित हुआ और उस समय राजा मानसिंह ने सामूहिक स्नान के लिए हरिद्वार के ब्रह्मकुण्ड पर ‘हर की पैड़ी’ नामक एक घाट का निर्माण करवाया और एक गंगा मन्दिर भी बनवाया। संन्यासियों का यह स्नान कुम्भ राशिस्थ गुरु की अवधि में सूर्य की मेष संक्रान्ति पर हुआ था, क्योंकि नारदपुराण में कुम्भस्थ गुरु में स्नान का विधान दिया गया है। “इस प्रकार प्रयाग का सामूहिक स्नान पर्व हरिद्वार आकर ‘कुम्भ मेला’ में रूपान्तरित हो गया। निर्माण कार्य पूरा होने पर जब सामूहिक स्नान पर्व वापस आया, तो भी हरिद्वार का ‘कुम्भ मेला’ बन्द नहीं हुआ.... तब से लेकर आज तक हरिद्वार में यह कुम्भ पर्व प्रत्येक बारह वर्षों पर आयोजित होता चला जा रहा है। जब किला आदि का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद प्रयाग का मेला क्षेत्र पुन: स्नान के लिए उपलब्ध हो गया, तो यहाँ का भव्य षड्वार्षिक सामूहिक स्नान पुन: चालू हो गया।”
इतिहासकारों के अनुसार प्रयाग का यह षड्वार्षिक सामूहिक स्नान पर्व 17वीं शताब्दी में ‘माघ मेला’ या ‘कल्पवास’ के नाम से ही जाना जाता था। उसके लिए सम्भवत: कोई पृथक् नाम नहीं दिया गया था, जबकि हरिद्वार का पर्व पुराणोक्त विशिष्ट खगोलीय स्थिति के कारण ‘कुम्भ पर्व नाम से प्रसिद्ध हो गया, क्योंकि यह बृहस्पति के कुम्भ राशि पर स्थित होने पर ही होता था।
Nice information portrayed
ReplyDeletenice article
ReplyDeleteNice 👍🏻👍🏻
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